किसी भी राष्ट्र की प्रगति के लिए राष्ट्रीय एकता क्यों महत्वपूर्ण है?
राष्ट्रीय एकता का महत्त्व :
राष्ट्रीय एकता हमारा एक महत्तवपूर्ण लक्ष्य है। इसी के ऊपर हमारे जनतंत्र का भवन टिका हुआ है। भारत जैसे बहुजातीय,बहुभाषायी ,बहुधर्मावलम्बी विशाल देश के लिए राष्ट्रीय एकता का अपना खास महत्त्व है। साथ ही यहाँ राष्ट्रीय एकता की समस्या का होना भी अत्यंत स्वाभाविक ही है। यह समस्या भूतकाल में थी और वर्तमान समय में भी है। फिर भी सांस्कृतिक रूप से भारत हमेशा एक रहा है।
वास्तव में,आजादी की सुरक्षा देश की आर्थिक प्रगति तथा भारत के उज्जवल भविष्य के लिए यह आवश्यक है कि सम्पूर्ण भारत में राष्ट्रीय और भावात्मक एकता अक्षुण्ण बनी रहे। किन्तु चिंता का विषय यह है कि आजादी के पाँच दशकों के बाद भी हमारा जनतंत्र साम्प्रदायिक,भाषावाद,जातिवाद और आंचलिकता जैसे तत्त्वों से बुरी तरह ग्रसित है। ये तत्त्व दिन-प्रतिदिन उग्र होते जा रहे हैं। इनसे हमारी राष्ट्रीय एकता को जबरदस्त खतरा उत्पन्न हो गया है। पंडित जवाहरलाल नेहरू के इस कथन से राष्ट्रीय एकता की महत्ता पूर्णतः स्पष्ट होती है कि
मेरे जीवन का मुख्य कार्य भारत का एकीकरण है।
राष्ट्रीय एकता के विकास में इतिहास क्यों महत्वपूर्ण है?
राष्ट्रीय एकता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
इतिहासकारों के मतानुसार भारत में राजनितिक एकता का बड़ा अभाव रहा है। यही कारण है कि हमारी भूमि बार-बार विदेशियों से पदाक्रान्त हुई और हमें इतिहास की लम्बी अवधि तक परतंत्र भी रहना पड़ा। फिर भी,अतीत काल से ही अनेकता में एकता भारत की सांस्कृतिक विलक्षणता रही है।
प्राचीन काल में विभिन्न प्रजातियों और धर्मों के लोग भारत आए,जैसे शक, हुण आदि। किन्तु वे भारत में बसते चले गए। समय के प्रवाह के साथ-साथ उन्होंने भारत की संस्कृति की मुख्यधारा में अपने को समायोजित कर लिया। उनकी भाषा उनके रीती-रिवाज ,धर्म और संस्कृति धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति में लुप्त होती चली गई। इस प्रक्रिया से जो विविधताएँ उत्पन्न हुईं उससे भारतीय संस्कृति को समृद्धि प्राप्त हुई। अतः भारतीय संस्कृति आज जिस रूप में है वह न तो प्राचीन आर्यों की संस्कृति का द्योतक है और न किसी एक जाति या प्रजाति या समुदाय का। यह भारत में समय-समय पर आने वाली विभिन्न जातियों,प्रजातियों और संस्कृतियों के समागम से उत्पन्न कई संस्कृतियों का समुच्च है।
मुसलमानों का भी भारतीय संस्कृति के साथ सुन्दर तालमेल स्थापित हो गया। उन्होंने भी इस धरती को अपनी मातृभूमि माना और भारतीय संस्कृति के उन्नयन में उनकी सहभागिता काफी सराहनीय रही। किन्तु भारतीय संस्कृति के अबाध प्रवाह में भारी रूकावट तब आई जब यहाँ अँग्रेजी शासन की स्थापना हुई। अँग्रेजों ने भारत को अपना 'वतन' कभी नहीं माना। उन्होंने उपनिवेशवाद और सम्राज्यवाद की निति का पालन किया,भारतीयों का खुलकर शोषण किया। यहाँ के दो मुख्य सम्प्रदायों-हिन्दू और मुसलमान को,जो कई सदियों से सद्भवा का जीवन जीने में अभ्यस्त हो गए थे "फुट डालो और शासन करो"(Divide and Rule) की नीति का पालन करना शुरू कर दिया। यह नीति अंततः न केवल भारत के विभाजन का कारण बनी,बल्कि इसके दुष्परिणामों को हम आज तक भुगतने के विवश हैं। उससे हमारी सदियों पुराणी सांस्कृतिक एकता,जो हमारे पूर्वजों से विरासत में हमें मिली थी नष्ट-विनष्ट होती हुई दीख रही है। वस्तुतः राष्ट्रीय एकता का प्रश्न भारत में जनतंत्र,समाजवाद,धर्म-निरपेक्षता तथा आर्थिक विकाश-सभी के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा है।
राष्ट्रीय एकता क्या है ?
राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य नागरिकों में व्याप्त एकत्व भाव से है जो उनमें जाति ,धर्म ,क्षेत्र और भाषा के भेद-भाव के बिना स्वतः स्फुरति हों यह नागरिकों के बीच उस रागात्मक सम्बन्ध का सृजन करता है जिससे राष्ट्र की समृद्धि और क्षमता लगातार बढ़ती जाती है। इसी भावात्मक एकता के आधार पर राजनितिक एकता टिक पति हैं।
एकता दो प्रकार की होती है : एक तो एकता जो एकरूपता पर आधारित होती है,और दूसरी वह एकता जो अनेकता को अक्षुण्य बनाए रखने के बावजूद स्थापित होती है। यह दूसरी प्रकार की एकता अनेकता और विविधता के बीच की एकता ही तो है। भारत जैसे अनेक धर्मावलम्बियों और संस्कृतियों वाले एक विशाल देश में एकता का सही रूप अनेकता में एकता ही हो सकता है न कि सम्पूर्ण एकरूपता। हमने संविधान में राष्ट्रीय एकता का जो राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित किया है,वह विभिन्न संस्कृतियों के बीच सुन्दर तालमेल स्थापित करते हुए राष्ट्रीय एकता स्थापित करने की है।
राष्ट्रीय एकता के विरोधी तत्त्व :
राष्ट्रीय आन्दोलन के दिनों में राष्ट्रीय एकता की दिशा में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हुई थीं। किन्तु आजादी के बाद के वर्षों में वह जातिवाद , भाषावाद ,सम्प्रदायवाद ,अलगावाद के गलत तत्त्वों की सक्रियता के कारण तेजी के साथ मिटती चली गई और विभाजनकारी शक्तियों ने एक-एक करके अपना वीभत्स रूप दिखलाना शुरू कर दिया। वे अन्नतः राष्ट्रीय एकता की राह के बाधक बनते चले गए। ऐसे तत्त्वों में निम्नांकित प्रमुख हैं :
- साम्प्रदायिकता - देश की एकता को सबसे अधिक हानि साम्प्रदायिकता के कारण पहुँची है। संकीर्ण धर्मनिष्ठा के कारण भारत विभाजन हुआ,भयानक दंगे हुए और सहस्त्रो निर्दोष नर-नारियों की हत्या हुई। लेकिन नियति की विडंबना है कि स्वतंत्रता के 59 वर्षों के बाद भी स्थिति भयावह बानी हुई है और देश को साम्प्रदायिकता से मुक्ति नहीं मिल सकी है। हमें यह सोचना चाहिए कि हम मुसलमान,हिन्दू ,सिक्ख नहीं बल्कि हम केवल भारतीय हैं।
- भाषावाद -राष्ट्रीय एकता को भाषावाद से भी चुनौती मिली है। भाषा के आधार पर नए राज्यों के गठन की माँग 1956 ईo में उठाई गई थी। उस समय जनता की भावनाओं का लाभ उठाकर स्वार्थी लोगों ने राष्ट्रव्यापी आन्दोलनों का ताँता लगा दिया जिसकी यादें बड़ी ही कटु हैं और जिससे राष्ट्रीय एकता को काफी हानि पहुँचाई। संविधान ने प्रत्येक भाषा की समुन्नति के लिए पर्याप्त व्यवस्था की है। लेकिन दूसरी भाषाओँ के प्रति संकीर्णता का भाव कमने की जगह बढ़ता ही जा रहा है।
- जातिवाद -जातिवाद रूपी पिचास ने स्वाधीन भारत के जनतंत्रीय आधार को दुर्बल बनाने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई है। तमिलनाडु का ब्राह्मणवाद और गैर ब्राह्मणवाद, आन्ध्रप्रदेश का रेड्डी और काम्मा ,मैसूर का लिंगायत और बोक्कलिंग,बिहार का अगड़ा और पिछड़ा के बीच के संघर्ष ने इन राज्यों की राजनीति को विषाक्त कर रखा है। चुनावों का आधार जातिगत निष्ठा पर होने लगी। इस भावना से हमारी भावनात्मक एकता खंडित हुई है।
- प्रादेशिकता या क्षेत्रवाद - राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य के रास्ते में एक और अवरोधक तत्त्व प्रादेशिकता या क्षेत्रवाद है। प्रादेशिकता की भावना ने यदा-कदा कई पथभ्रष्ट लोगों को भारत संघ से अलग हो जाने के लिए प्रेरित किया है। इस प्रकार अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति का एक खास गुण है।संविधान ने अपनी कई व्यवस्थाओं के द्वारा इसे अक्षुण्ण रखने की कोशिश की है। लेकिन इसके बावजूद देश की भावनात्मक एकता को कई बाधक तत्त्वों से गंभीर खतरा उत्पन्न हुआ है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि इन तत्त्वों पर यथा संभव शीघ्र ही प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित किया जाए।
राष्ट्रीय एकीकरण में सहायक तत्त्व
वस्तुतः राष्ट्रीय एकता का बुनियाद आधार है - राष्ट्र के प्रति निष्ठा। हमारे संविधान निर्माता इस बात से परिचित थे कि भारत में विघटनकारी तत्त्वों को तभी सिर उठाने का मौका मिला जब देश की केंद्रीय शक्ति दुर्बल हुई। अतः उन्होंने संघ