हमारा दूसरा महान राष्ट्रीय लक्ष्य समाजवाद का है। जनतंत्र और सामजवाद को पूरक बुनियादी सिद्धांत कहा जा सकता है। जिस प्रकार जनतंत्र के प्रभाव से आधुनिक दुनिया का कोई देश अछूता नहीं है,उसी प्रकार समाजवाद ने भी व्यापक रूप से दुनिया के सभी देशों को प्रवाहित किया है। यहाँ तक कि इसके प्रभाव से दुनिया का सबसे संपन्न और बड़ा पूँजीवाद देश संयुक्त राज्य अमेरिका भी नहीं बच पाया है। इसका मुख्य कारण जनतांत्रिक धारणा के साथ समाजवाद का घनिष्ठ सम्बन्ध ही है। यही कारण है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जनतंत्र की तरह समाजवाद को भी भारत का एक महत्तवपूर्ण राष्ट्रीय लक्ष्य उद्घोषित किया गया है। लेकिन मूल संविधान में समाजवाद को एक मार्गदर्शन सिद्धांत के रूप में ही स्वीकार किआ गया था। संविधान की किसी भी धारा में इसका कोई उल्लेख नहीं किया गया था। पहली बार इसका स्पष्टीकरण 1955 ईo में कांग्रेस के अवाडी(Avadi) सम्मलेन में हुआ जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यह स्पष्ट किया था कि भारत में प्रशासन का लक्ष्य समाजवादी समाज की स्थापना करना है। किन्तु संविधान के 42 वें संशोधन के द्वारा 1976 ईo में प्रस्तावना को संशोधित करके भारत को स्पष्ट रूप में एक समाजवादी गणराज्य घोषित किया गया।
समाजवाद क्या है ?
समाजवाद एक पुराना सिद्धांत है,किन्तु इसके प्रति आशक्ति और आकर्षण अवश्य ही आधुनिक है। समाजवाद का मुख्य लक्ष्य यह माना गया है कि एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति द्वारा शोषण न हो और प्रत्येक नागरिक को अपने व्यक्तित्व के विकास की सुविधाएँ मिले। इसका सामान्य अर्थ है -
वर्त्तमान पूँजीवाद का अंत करके एक नवीन समाज का निर्माण करना शोषण-मुक्त हो और अभावों से रहित हो। सिडनी वेव नामक अँग्रेज विद्वान के अनुसार,"जनतंत्रीय विचार का आर्थिक पक्ष ही समाजवाद है। "
समाजवाद का भारतीय रूप-लोकतान्त्रिक समाजवाद :
भारत में समाजवाद को जिस रूप में अपनाया गया है वह यूरोप के समाजवादी दर्शन से कई दृष्टियों से भिन्न है। भारत जैसे विकासशील देश में समाजवाद मुक्ति का दूत और रक्तहीन क्रांति का प्रतीक माना गया है। इसे औद्यौगीकरण का माध्यम एवं सुख और समृद्धि का मूल-मंत्र माना गया है। भारत में समाजवाद को रूपांकित करने का श्रेय जवाहरलाल नेहरू को है। हमने समाजवाद की जो रुपरेखा निर्धारित की है वह भारतीय संस्कृति की परम्परा पर तो आधारित है ही,साथ ही उसके ऊपर राष्ट्र-पिता महात्मा गाँधी के सर्वोदय का भी व्यापाक प्रभाव है। यह स्वतंत्र भारत की औद्योगीकरण की आवश्यकता के अनुरूप महत्त्वाकांक्षी जनतांत्रिक आधारों पर निर्मित किया गया है। भारत के समाजवाद को हम लोकतान्त्रिक समाजवाद (Democratic socialism) के नाम से सम्बोधित कर सकते है। समाजवाद का यह दृष्टिकोण आर्थिक समानता का,जनतंत्रीय और धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण का पूरक है। साथ ही यह अन्तराष्ट्रीयता की ओर भी उन्मुख है। संविधान-निर्माताओं ने समाजवाद को एक ऐसा माध्यम माना है जो देश को आर्थिक विपन्नता से मुक्ति दिला सकेगा,सामाजिक न्याय की स्थापना करने में सहायक होगा और अंततोगत्वा जनतंत्र को मजबूत आधार-भूमि प्रदान करेगा।
भारत में समाजवाद को व्यवहारिक रूप देने का साधन :
भारत में समाजवाद के राष्ट्रीय लक्ष्य को व्यावहारिक रूप देने के लिए कई साधनों को अपनाया गया है, जैसे -
(क) संविधान की धाराएँ - सर्वप्रथम,प्रस्तावना में 42 वीं संसोधन के द्वारा भारत को 'समाजवादी गणराज्य' घोषित किया गया। इसके अतिरक्त,संविधान का चतुर्थ भाग ''राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व" समाजवादी समाज तथा लोककल्याणीकारी राज्य की स्थापना के लक्ष्य से प्रेरित हैं। साथ ही,संविधान के 44 वीं संसोधन द्वारा धारा 31 को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिए जाने के पीछे भारत में समाजवाद को लाने का ही अभीष्ट था।
(ख) आर्थिक नियोजन -भारत में आर्थिक नियोजन का एकमात्र उद्देश्य है -"समाजवादी समाज" की स्थापना करना। इसके लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था के आदर्श को स्वीकार किया गया है। इस व्यवस्था में जहाँ सरकार ने आर्थिक नियोजन की जिम्मेवारी अपने ऊपर ली है और इसके लिए उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का रास्ता चुना है वहीं उसने निजी क्षेत्र के विकास के लिए भी प्रोत्साहन देने की बना रखी है।
भारत में समाजवाद की उपलब्धियाँ :
क्या समाजवादी समाज की स्थापना की दिशा में हमारी प्रगति संतोषजनक रही है ? अब तक की उपलब्धियों का विवरण इस प्रकार है :-
योजना आयोग ने समाजवादी सिद्धांतों को उद्देश्य मानते हुए सभी पंचवर्षीय योजनाओं को ऐसा रूप दिया है कि धन का केन्द्रीकरण न हो, बेकारी ,अभावग्रस्तता,गरीबी आदि को दूर किया जा सके और उत्पादन में लगातार वृद्धि करके आत्मनिर्भरता का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके। जमींदारी प्रथा-उन्मूलन,पंचायती राज योजना,सामुदायिक विकास योजनाएँ,उद्योगों और व्यवसायों का राष्ट्रीयकरण,देशी नरेशों के प्रिवीपर्स की समाप्ति,बैंकों का राष्ट्रीयकरण,सरकारी क्षेत्र में बड़े उद्योगों की स्थापना,आदि के द्वारा पिछले चौआलीश वर्षों में अनेक उपलब्धियाँ हुई हैं। भारत जैसे सामाजिक रूप से पिछड़े हुए देश में समाजवाद ने अनेक सामाजिक क्रांतियों का सृजन किया है,जैसे-छुआछूत का निवारण। इस अवधि में आर्थिक प्रगति आशातीत रही है। राष्ट्रीय आय में वार्षिक वृद्धि के साथ ही भारत आद्यौगिक क्रांति के युग में प्रवेश कर चूका है। लौह अयस्क,कोयला, बिजली और नेत्रजन उर्वरक की उत्पादकता में अभूतपूर्व वृद्धि देखने को मिली है और इन क्षेत्रों में भारत आत्मनिर्भर-सा हो चूका है।
इन सभी उपलब्धियों के बावजूद भारत में समाजवाद की प्रगति को धीमा ही कहा जाएगा। वस्तुतः हमारा समजा एक संक्रान्ति काल से गुजर रहा है। सन 1994 ईo के आँकड़े बतलाते कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में जितनी आबादी थीं उनमें क्रमशः 47:65 प्रतिशत और 40:71 प्रतिशत जनता ऐसी थीं जो गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन के लिए विवश थीं।
सन 2000 ईo एक प्रकाशित रिपोर्ट (The human Development Report) जिसके 1998 ईo के आँकड़े के आधार पर बतलाया गया है कि पिछले वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था में काफी अच्छी प्रगति हुई है। इसने माध्यम श्रेणी की आर्थिक उन्नति के स्तर को प्राप्त कर लिया है। भारत ने गरीबी उन्मूलन के क्षेत्र में भी क्रन्तिकारी परिवर्तन किया है। भारत ने 1974 ईo में गरीबी रेखा को घटाकर 54 प्रतिशत और 1994 ईo में 39 प्रतिशत पर ला दिया और सन 2000 ईo का प्रतिशत है 34.6 ।
समाजवाद के रास्ते में सबसे बड़ी रूकावट जनसंख्या की लगातार वृद्धि है। फिर भी समाजवाद हमारा एक महत्तवपूर्ण राष्ट्रीय लक्ष्य है और हम इस ओर लगातार वृद्धि प्रगति कर रहे हैं।स्वतंत्रता के समय की हमारी कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था ने आज यदि एक विकसित और विविधतापूर्ण आद्यौगिक अर्थव्यवस्था का रूप ले लिया है-तो यह समाजवाद का ही परिणाम है।