उत्तर- अमीबा का भोजन शैवाल (algae) के छोटे-छोटे टुकड़े ,बैक्टेरिया,डायटम(diatoms),अन्य छोटे एककोशकीय जीव तथा मृत कार्बनिक पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़े इत्यादि है।
अमीबा का भोजन के अंतर्ग्रहण,पाचन तथा बहिष्करण प्रक्रियाओं द्वारा पूर्ण होता है।
अमीबा में भोजन एवं पाचन को सचित्र समझाइए?
अमीबा में पोषण का वर्णन :-
अमीबा में भोजन के अंतर्ग्रहण के लिए मुख जैसा कोई निश्चित स्थान नहीं होता है,बल्कि यह शरीर की सतह के किसी भी स्थान से हो सकता है।
भोजन जब अमीबा के बिलकुल समीप होता है तब अमीबा भोजन के चारों ओर कूटपादों का निर्माण करता है। कूटपाद तेजी से बढ़ते हैं और भोजन को पूरी तरह घेर लेते हैं। धीरे-धीरे कूटपादों के सिरे तथा फिर पार्श्व आपस में जुड़ जाते हैं। इस तरह एक भोजन-रसधानी (food vacuole) का निर्माण हो जाता है जिसमें भोजन के साथ जल भी होता है।
भोजन का पाचन-रसधानी में ही एंजाइमों के द्वारा होता है। पचा हुआ भोजन भोजन-रसधानी से निकलकर कोशिकाद्रव्य में पहुँच जाता है,वहाँ से फिर समूचे शरीर में वितरित हो जाता है। अमीबा में अपचे भोजन को शरीर से बाहर निकालने के लिए निश्चित स्थान नहीं होता है। शरीर की सतह के किसी भाग में एक अस्थायी छिद्र का निर्माण होता है जिससे अपचा भोजन बाहर निकल जाता है।
Q.मनुष्य के आहारनाल में पाचन की क्रिया का वर्णन करें।
उत्तर :- यह एक कुंडलित(coiled) रचना है जिसकी लंबाई करीब 8 से 10 मीटर तक की होती है। यह मुखगुहा से शुरू होकर मलद्वार तक फैली होती है।आहारनाल के विभिन्न भागों की संरचना तथा उनके कार्य निम्नलिखित हैं।
मुखगुहा -
मुखगुहा आहारनाल का पहला भाग है .यह ऊपरी तथा निचले जबड़े (jaws) से घिरी होती है। मुखगुहा को बंद करने के लिए दो (ऊपरी तथा निचले) मांसल होंठ (lips) होते हैं।
जीभ मुखगुहा के फर्श पर स्थित एक मांसल रचना है।इसका अगला सिरा स्वतंत्र तथा पिछला सिरा फर्स से जुड़ा होता है। जीभ के ऊपरी सतह पर कई छोटे-छोटे अंकुर (papillae) होते हैं जिन्हें स्वाद कलियाँ (taste buds) कहते हैं। इन्हीं स्वाद कलियों के द्वारा मनुष्य को भोजन के विभिन्न स्वादों जैसे मीठा,खारा,खट्टा,कडुआ आदि का ज्ञान होता है। जीभ अपनी गति के द्वारा भोजन को निगलने में मदद करता है।
मुखगुहा के ऊपरी तथा निचले जबड़े पर दाँत व्यवस्थित होते हैं। प्रत्येक दाँत जबड़े के मसूढ़े (gums) से जुड़ा होता है। दाँत का वह भाग जो मसूढ़े में धँसा होता है जड़(root) तथा वह भाग जो मसूढ़े के ऊपर निकला होता है,सिर या शिखर (crown) कहलाता है। जड़ तथा शिखर के बीच का भाग ग्रीवा या गर्दन (neck) कहलाता है। प्रत्येक दाँत के भीतर एक मज्जा-गुहा (pulp cavity) होती है। इसके ऊपर दंतास्थि या (dentine) होती है जो दाँत का अधिकांश भाग तैयार करती है। यह हड्डी से अधिक कड़ी तथा पीले रंग की होती है। डेन्टाइन के ऊपर इनामेल (enamel) की एक कड़ी परत होती है,जो दाँत को सुरक्षा देती है। दाँत भोजन को काटने तथा चबाने का कार्य करते हैं। एक वयस्क मनुष्य के मुखगुहा में कूल 32 दाँत होते हैं। दाँत चार प्रकार के होते हैं - कर्तनक या इनसाइजर (incisor),भेदक या कैनाइन(canine),अग्रचवर्नक या प्रिमोलार (premolar) तथा चर्वणक या मोलर(molar)।
दंत-अस्थिक्षय -
जब हम कोई मीठी चीज,जैसे मिठाई,चॉकलेट आइसक्रीम आदि खाते हैं तथा खाने के बाद अपनी दाँतों को अच्छी तरह साफ महीन करते हैं,तब ये चीजें हमारी दाँतो से चिपक जाती हैं। इनमें स्थित शक्कर पर बैक्टीरिया रासायनिक क्रिया कर अम्ल बनाते हैं। यह अम्ल दाँत की बाहरी कड़ी परत पर क्रिया कर उसे नरम बना देता है। धीरे-धीरे उस स्थान पर छिद्र बन जाता है जो दन्त-अस्थिक्षय(dental caries) कहलाता है। बैक्टेरिया तथा भोजन के महीन कण दाँत से चिपककर एक परत का निर्माण कर देते हैं। जब इसे अच्छी प्रकार से साफ नहीं किया जाता है,तब यह दाँतों पर एक स्थायी परत बना देता है।यह परत दन्त प्लाक (dental plaque) कहलाता है।इसीलिए,भोजन के बाद दाँतों को नियमित रूप से अच्छे दंतमंजन से साफ करना चाहिए।ऐसा नहीं करने पर बैक्टीरिया दाँतों के भीतर प्रवेश कर जड़ों तक पहुँच जाते हैं।इससे दाँत संक्रमित हो जाते हैं जिससे दाँतों में दर्द होने लगता है।
मनुष्य के मुखगुहा में तीन जोड़ी लारग्रंथियाँ पाई जाती हैं जो पेरोटिड ग्रंथि (parotid gland),सबमैंडिबुलर लारग्रंथि (sublingual salivary gland)कहलाती हैं।इनसे निकलनेवाला लार (saliva) नलिकाओं द्वारा मुखगुहा में गिरता है।
ग्रसनी-
मुखगुहा का पिछला भाग ग्रसनी (pharynx) कहलाता है। इसमें दो छिद्र होते हैं -(i) निगलद्वार(gullet)जो निगलद्वार के भाग (ग्रासनली) में खुलता है तथा
(ii)कंठद्वार (glottis),जो श्वासनली (trachea) में खुलता है। कंठद्वार के आगे एक पट्टी जैसी रचना होती है,जो एपीग्लौटिस (epiglottis) कहलाता है। मनुष्य जब भोजन करता है तब यह पट्टी कंठद्वार को ढँक देती है,जिससे भोजन श्वासनली में नहीं जा पाता है।
ग्रासनली -
मुखगुहा से लार से सना हुआ भोजन निगलद्वार के द्वारा ग्रासनली (oesophagus) में पहुँचता है।भोजन के पहुँचते ही ग्रासनली की दीवार में तरंग की तरह संकुचन या सिकुड़न और शिथिलन या फैलाव शुरू होता है जिसे क्रमाकुंचन (peristalsis)कहते हैं। इसी प्रकार की गति के कारण भोजन धीरे-धीरे नीचे की ओर घिसकता जाता है।ग्रासनली में पाचन क्रिया नहीं होती है।ग्रासनली से भोजन आमाशय (stomach) में पहुँचता है।
आमाशय -
यह एकचौड़ी थैली जैसी रचना है जो उदर-गुहा के बाईं ओर से शुरू होकर अनुप्रस्थ दिशा में फैली होती है। आमाशय का अग्रभाग कार्डिएक (cardiac part) तथा पिछला भाग पाइलोरिक भाग (pyloric part) कहलाता है। इन दोनों के बीच का भाग फुण्डिक भाग (fundic part) कहलाता है। आहारनाल के अन्य भागों की तरह आमशय की भीतरी दीवार पर स्तंभाकार एपिथीलियम (columnar epithelium) कोशिकाओं का स्तर होता है। कोशिकाओं का यह स्तर होता है। कोशिकाओं का यह स्तर जगह-जगह अंदर की ओर धँसा रहता है। इन धँसे भागों की कोशिकाएँ आमाशय ग्रंथि या जठर ग्रंथि (gastric gland) का निर्माण करती हैं।
जठर ग्रंथियों की कोशिकाओं टेन प्रकार की प्रकार की होती हैं -
(i) श्लेष्मा या म्यूकस कोशिकाएँ (mucous cells),(ii) भित्तीय या अम्लजन कोशिकाएँ (parietal or oxyntic cell) तथा (iii) मुख्य या जाइमोजिन कोशिकाएँ (chief or zymogen cells)।
इन तीनों प्रकार की कोशिकाओं के स्राव का सम्मिलित रूप जठर रस (gastic juice) कहलाता है। जठर रस में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल ,म्यूकस या श्लेष्मा तथा निष्क्रिय पेप्सिनोजेन (pepsinogen) होता है। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल ,का स्राव अम्लजन कोशिकाओं से होता है। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल निष्क्रिय पेप्सिनोजेन को सक्रिय पेप्सिन पेप्सिन (pepsin) नामक ऐंजाइम में बदल देता है। पेप्सिन भोजन के प्रोटीन पर कार्य कर उसे पेप्टोन (peptone) में बदल देता है। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल जीवाणुनाशक की तरह भी कार्य करते है तथा भोजन के साथ आनेवाले बैक्टेरिया को नष्ट कर देता है।म्यूकस का स्राव म्यूकस कोशिकाओं से होता है।म्यूकस आमाशय की दीवार तथा जठर ग्रंथियों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तथा ऐंजाइम पेप्सिन से सुरक्षित रखता है। मनुष्य के आमाशय में प्रतिदिन लगभग 3 लीटर जठर रस का स्राव होता है।
आमाशय की ग्रंथियों से कभी-कभी अत्यधिक अम्लीय स्राव (acidic seretion) होने लगता है जिसके कारण इनकी दीवार को सुरक्षित रखनेवाले म्यूकस (mucous) का स्राव घट जाता है। ऐसी स्थिति में आमाशय की दीवार की आंतरिक स्तर में कहीं-कहीं गोलाकार,अंदर की ओर कुछ धँसा हुआ घाव निकल जाता है। ऐसा घाव अल्सर (ulcer) कहलाता है। आमाशय की दीवार में होनेवाला इस प्रकार का घाव पेप्टिक अल्सर अल्सर (peptic ulcer) कहलाता है। वैसे व्यक्तियों में जो लंबे समय तक बिना भोजन के,अर्थात भूखे रह जाते हैं,उन्हें पेप्टिक अल्सर होने का संभावना अधिक होती है।
आमाशय में प्रोटीन के अतिरिक्त भोजन वसा का भी पाचन प्रारम्भ होता है। यहाँ वसा का आंशिक पाचन एंजाइम गैस्ट्रिक लाइपेस के द्वारा होता है। गैस्ट्रिक लाइपेस वसा को वसा अम्ल तथा ग्लिसरॉल में बदलता है। आमाशय में अब भोजन का स्वरुप गाढ़े लेइ की तरह हो जाता है जिसे काइम (chyme) कहते हैं। काइम आमाशय के पाइलोरिक छिद्र के द्वारा आँत (small intestine) में पहुँचता है।
छोटी आँत -
छोटी आँत आहारनाल का सबसे लंबा भाग है। यह बेलनाकार रचना है। आहारनाल के इस भाग में पाचन की क्रिया पूर्ण होती है। मनुष्य में इसकी लंबाई लगभग 6 मीटर तथा चौड़ाई 2.5 सेंटीमीटर होती है। भिन्न-भिन्न जंतुओं में छोटी आँत की लंबाई अलग-अलग होती है। लंबाई सामान्यतः भोजन के प्रकार पर निर्भर करता है। जैसे शाकाहारी जंतुओं में छोटी आँत की लंबाई अधिक होती है ताकि सेल्युलोस का पाचन ठीक से हो सके। मांसाहारी भोजन का पाचन अपेक्षाकृत सरल होता है। इसीलिए,मांसाहारी जंतुओं की छोटी आंत की लंबाई कम होती है। छोटी आँत तीन भागों-ग्रहणी (duodenum),जेजुनम (jejunum) तथा इलियम (ileum) में बँटा होता है। ग्रहणी,छोटी आँत का पहला भाग है जो आमाशय के पाइलोरिक भाग के ठीक बाद शुरू होता है। यह प्रायः C के आकार का होता है। ग्रहणी में लगभग बीचोबीच एक छिद्र के द्वारा एक नलिका खुलती है। यह नलिका दो भिन्न-भिन्न नलिकाओं के आपस में जुड़ने से बनी होती हैं। इनमें से एक नलिका आग्न्याशयी वाहनी (pancreatic duct) तथा दुसरी नलिका मूल पित्तवाहिनी(common bile duct) होती है।